मेष लग्न का फलादेश

मेष लग्न वाले जातक साहसी, अभिमानी और स्वाभाविक नेतृत्व क्षमता वाले होते हैं, जो किसी भी पहल को करने के लिए तैयार रहते हैं। उनका स्वभाव स्पष्टवादी और जिद्दी हो सकता है, लेकिन वे दयालु और भावुक भी होते हैं। जीवन के शुरुआती वर्ष संघर्षपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन वे अपने परिश्रम से सफलता प्राप्त करते हैं।

सूर्य

1. मेष लग्न में सूर्य शुभ, धनदायक ग्रह है, क्योंकि त्रिकोण का स्वामी है ।

2. सूर्य पांच नम्बर की राशि तथा पांच नम्बर के भाव, दोनों का स्वामी हो जाता है । अतः यदि पापयुक्त अथवा पापदृष्ट हो तो पेट में रोग देता है ।

3. यदि सूर्य, राहु आदि से पीड़ित हो तथा राहु आदि का प्रभाव पंचम भाव पर भी हो तो दिल का रोग (Heart Trouble) देता है, क्योंकि सिंह राशि तथा सूर्य दिल है तथा राहु अचानक आक्रमण करने के लिए प्रसिद्ध है!

4. यदि सूर्य और चंद्र का परस्पर (दृष्टि योग आदि) संबंध हो, तो जातक को निश्चय ही राजयोग की प्राप्ति होती है । राजयोग से तात्पर्य धनी होना और दूसरों पर अधिकार की प्राप्ति है । पाराशरीय नियमों के अनुसार केन्द्र और त्रिकोण के स्वामियों का पारस्परिक संबंध राजयोग देता है। यहाँ चन्द्र केंद्रेश और सूर्य त्रिकोणेश होने से उनका पारस्परिक सम्बन्ध राजयोग उत्पन्न करेगा ।

हाँ, इतना अवश्य है कि चन्द्र अपनी दशा भुक्ति में उतना अच्छा फल नहीं देगा, जितना कि सूर्य । कारण यह कि सूर्य के सान्निध्य से ग्रहों का बल क्षीण हो जाता है ।

मेष लग्न में सूर्य महादशा का फल

यदि सूर्य बलवान हो और उस पर गुरु की कृपा दृष्टि हो तो बहुत पुत्रों को प्राप्त करता है। ऐसे व्यक्ति में गम्भीर चिन्तन की पर्याप्त शक्ति रहती है। उसका पुत्र प्रायः जीवन में ऊंचा स्तर प्राप्त करता है । वह इस अवधि में अच्छे धन की प्राप्ति करता है।

यदि सूर्य पर अधिक शुभ प्रभाव हो तो उसे सट्टे, लाटरी आदि से भी इस अवधि में लाभ हो सकता है। यह अवधि उसके सात्विक आमोद-प्रमोद की होती है। इसमें वह व्यक्ति भागवान् विष्णु की भक्ति प्राप्त करता है अथवा वेदान्त शास्त्र प्रतिपादित नियमों के पालन की ओर अग्रसर होता है। उसमें दूर की सोचने की शक्ति रहती है ।

यदि सूर्य बहुत शुभ प्रभाव में हो तो इस अवधि में जातक भविष्यवक्ता बन जाता है और उसको अपनी स्त्री के बड़े भाइयों से लाभ रहता है। ऐसा व्यक्ति इस अवधि में अपने महकमे की परीक्षाओं को पास करने में सफल हो जाता है ।

यदि सूर्य निर्बल हो और शनि तथा बुध के प्रभाव में वह भी और पंचम भाव भी हो तो इस अवधि में मनुष्य को अनपाचे (Dyspepsia) का रोग हो जाता है और उसकी स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है । यदि पाप प्रभाव अधिक हो तो पेट में अलसर आदि असाध्य रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। राहु और शनि के प्रभाव में पंचम-पंचमेश बार-बार गर्भपात करवाता है । ऐसे व्यक्ति को लाटरी, सट्टे आदि से सर्वदा हानि ही रहती है।

चन्द्र

1. चन्द्र यद्यपि चतुर्थेश होने के कारण अपनी नैसर्गिक शुभता खो बैठता है फिर भी इसका षष्ठ भाव अथवा द्वादश अनिष्ट भाव में क्षीण होकर स्थित होना धन तथा सुख के लिए अशुभ होगा।

2. चन्द्र मन का कारक होकर मन का स्वामी भी बन जाता है । अतः चन्द्र द्वितीय में हो तो लोभी, तृतीय में हो तो मित्रों को चाहने वाला, पंचम में हो तो पुत्रों का हितैषी, छठे में हो तो लाभप्रिय तथा जात्यन्तर का हितैषी आदि आदि होता है।

3. यदि चन्द्र निर्बल हो तो छाती के रोगों को देता है। माता को भी छाती के रोग होते हैं, क्योंकि चतुर्थ भाव में चार नम्बर की राशि (छाती) पड़ती है।

4. चन्द्र यदि राहु से प्रभावित हो तो व्यक्ति को गश (Swoons) आने का रोग होता है, चन्द्र यदि अष्टम स्थान में राहु से प्रभावित हो तो मिरगी का रोग देता है, क्योंकि मन में डर (Phobia) की विशेष उत्पत्ति होती है।

मेष लग्न में चन्द्र महादशा का फल

यदि चन्द्रमा बलवान हो तो मन में विशेष उल्लास, प्रसन्नता, उत्साह और शान्ति अपनी दशा भुक्ति देता है। इस अवधि में व्यक्ति को जनसाधारण के सम्पर्क में आने का अधिक अवसर प्राप्त होता है। उसके सुख में वृद्धि होती है।

यदि चन्द्र और शुक्र का सम्बन्ध हो तो जातक को वाहन आदि का सुख प्राप्त होता है ।

जलीय स्थानों में उसका भ्रमण होता है, मकान आदि की प्राप्ति की सम्भावना रहती है। मनुष्य उन्नति की ओर अग्रसर रहता है । इस अवधि में मनुष्य भावुकता के आवेश में आकर कई शुभ कार्य करता है ।

यदि चन्द्रमा क्षीण और पापी प्रभाव में हो तो यह अपनी दशा भुक्ति में मन में क्रोध, उदासीनता, वैराग्य आदि कई प्रकार को वृत्तियों को जन्म देता है, यदि चन्द्रमा बुध से तथा सूर्य और मंगल से मिलकर राहु, शनि द्वारा पीड़ित हो तो मस्तिष्क के रोगों से मनुष्य बहुत पीड़ित रहता है और अधिक पाप प्रभाव होने पर पागल तक हो जाता है।

यदि चन्द्रमा और चतुर्थ भाव पर केवल राहु का प्रभाव हो तो मनुष्य इस अवधि में रक्तचाप (Blood Pressure) से पीड़ित रहता है । उस अवधि में उसे मानसिक क्लेश बहुत प्राप्त होते हैं, माता रोगी रहती है ।

स्वयं जातक भी छाती के रोगों से पीड़ित रहता है। पीड़ित चन्द्रमा की दशा में मनुष्य धन का बहुत नाश देखता है । इस अवधि में उसके पिता को महान् शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है । यदि स्त्री की कुण्डली है तो उसके पति को कुछ अपमानित होना पड़ता है। घर से प्रायः बाहर रहना पड़ता है । जनता के हाथों दुःख उठाना पड़ता है ।

यदि राहु से प्रभावित चन्द्र सप्तम में हो तो व्यभिचार की प्रवृत्ति देता है।

मंगल

1. मंगल लग्नेश-अष्टमेश है । शुभ फल देता है। जातक बहुधा मंगल के गुणों को लिए हुए होता है। काम-काज में तेज, कुछ-कुछ क्रोधी प्रकृति का होता है।

2. चूंकि मंगल लग्नाधिपति तथा अष्टमाधिपति दोनों बन जाता है, मंगल का एक साथ दो आयु द्योतक घरों का स्वामी बन जाना मंगल को आयु के सम्बन्ध में विशेष महत्व प्रदान करता है। अर्थात् यदि मंगल बलवान हो तो आयु दीर्घ खण्ड में पड़ जाती है और यदि मंगल निर्बल हो तो मनुष्य अल्पजीवी होता है ।

3. मंगल लग्नेश का प्रमुख व्यसन स्थान का स्वामी होना मनुष्य को व्यसनशील बना देता है; विशेषतया तब जबकि मंगल का प्रभाव चतुर्थ भाव पर तथा चन्द्र पर हो ।

4. यदि शनि की दृष्टि मंगल पर हो तथा लग्न पर हो तो मनुष्य से हत्या हो सकती है।

5. यदि मंगल अष्टम स्थान में हो, तो अच्छा फल नहीं देता । क्योंकि मंगल की मूल त्रिकोण राशि लग्न में पड़ती है, इसलिए मंगल ने लग्न का फल करना है। अब चूँकि मंगल निज स्थान (लग्न) से अष्टम में है, यह लग्न के फल को नाश करने वाला होगा।

6. यदि द्वितीय स्थान में वृषभ राशि में मंगल, गुरु, शुक्र स्थित हों, तो यह योग शुभ धनादिदायक होता है । क्योंकि मंगल लग्नेश रूप से, गुरु भाग्येश रूप से, शुक्र धनेश रूप से धन के प्रतिनिधि हैं, इसलिए उन सबका एकत्र होना और वह भी धन स्थान में, धनदायक सिद्ध होगा ही ।

7. यदि मंगल, गुरु और शुक्र के साथ तृतीय भाव में मिथुन राशि में स्थित हो, तो वह योगप्रद नहीं होता । यहॉ मंगल अपनी मेष राशि से तृतीय और वृश्चिक से अष्टम होगा । तृतीय और अष्टम दोनों स्थितियाँ अशुभ हैं, अतः मंगल अशुभ फलदाता होगा। परन्तु चूँकि गुरु और शुक्र से युक्त है, कुछ शुभ फल करेगा। जो भी हो, योगप्रद न हो पावेगा ।

8. मगंल चतुर्थ भाव में कर्क राशि में गुरु युक्त हो, तो बहुत शुभ फल करता है । कर्क का मगंल मेष से चतुर्थ और वृश्चिक से नवम होता है । चतुर्थ और नवम दोनों स्थितियाँ शुभ हैं, अतः मंगल नीच राशि में होता हुआ भी बहुत अच्छा फल करेगा । अपने मित्र और अच्छे शुभ भाग्येश के साथ होकर और भी शुभ फलप्रद होगा ।

9. यदि मंगल पंचम भाव में सिंह राशि में हो, तो अपनी दशा भुक्ति में योगफल अर्थात् धनादि देता है । इस स्थिति में मंगल दो कारणों से शुभ फलदायक होता है । एक तो इसलिये कि वह मेष से पंचम और वृश्चिक से दशम दो शुभ स्थानों में स्थित होता है; दूसरे चूँकि इसकी दृष्टि अपनी राशि वृश्चिक पर पड़ती है इस दृष्टि से अष्टम और लग्न (धन-बल, आदि, दोनों को बल मिलता है, जिससे शुभ फल की प्राप्ति होती है ।

10. यदि मंगल और बुध कन्या राशि में छठे भाव में हों, तो अपनी-अपनी दशा भुक्ति में फोड़े, फुंसी आदि रोगों को जन्म देते हैं । यहाँ सादृश्य का सिद्धान्त काम करता है। मंगल घाव आदि का द्योतक है, छठा भाव और षष्टेश भी घाव आदि के द्योतक हैं; इसलिए षष्टेश का मंगल सहित लग्न से छठे भाव में बैठना छठे भाव प्रदर्शित घाव आदि की सृष्टि करेगा, जिसका फल बुध और मंगल दोनों एक जैसा करेंगे ।

11. यदि नवम स्थान में धनु राशि में सूर्य, मंगल, गुरु और शुक्र स्थित हो और शनि सप्तम में हो, तो मंगल विशेष रूप से शुभ फल देने वाला होता है।

क्योंकि सूर्य पंचमेश होकर, मंगल लग्नेश होकर, गुरु शुभ भाग्येश होकर और शुक्र धनेश होकर सभी ग्रह धनदायक हैं, अतः मंगल जो स्वयं भी लग्न से तथा वृश्चिक राशि से स्थिति में होगा । इन धनदायक ग्रहों से युक्त होकर इनका भी शुभ फल करेगा जिसके फलस्वरूप विशेष शुभ फल की प्राप्ति होगी । शनि की मंगल पर दृष्टि भी शुभ ही सिद्ध होगी, क्योंकि शनि ने लाभ भाव का धनप्रद फल करना है, कारण कि उसकी मूल त्रिकोण राशि एकादश (लाभ) भाव में पड़ती है ।

मेष लग्न का फलादेश

मेष लग्न में मंगल की महादशा का फल

जब मंगल बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन, मान के अतिरिक्त प्रभावशाली व्यक्तित्व भी देता है । इस अवधि में जातक में उत्साह, उमंग, पुरुषार्थ, वीरता और सब कार्यों में आगे रहने की प्रवृत्ति जागरूक रहती है ।

यदि मंगल लग्नस्थ अपनी राशि को अथवा अन्यत्र स्थित राशि को पूर्ण दृष्टि से देखता हो और साथ ही मंगल पर अथवा मंगल की किसी भी राशि पर यदि गुरु आदि का शुभ प्रभाव हो तो जातक का स्तर बहुत ऊंचा हो जाता है, वह मंगल की दशा में धन और मान दोनों की ख्याति पाता है ।

मंगल और शनि यदि किसी भाव और उस के कारक को अथवा भावेश और कारक को देखेंगे तो जातक इस दशा भुक्ति में जान-बूझकर उस भाव सम्बन्धित व्यक्ति को कष्ट देने पर उतारू हो जाता है।

यदि मंगल निर्बल और पीड़ित हो तो धन की चिन्ता देता है । शरीर में पित्त के तथा बवासीर आदि के रोग उत्पन्न करता है। मंगल की दशा भुक्ति में शारीरिक तथा आर्थिक कष्ट के अतिरिक्त मान-हानि भी पाता है । उसको शत्रुओं से पीड़ा रहती है और वह स्वयं किसी दुर्व्यसन में फंस जाता है । इस अवधि में जातक अपनी मृत्यु को स्वयं बुलाते हैं।

बुध

1. बुध तृतीयेश षष्ठेश है। दोनों पापी स्थान हैं । अतः बुध बहुत पापी है । यदि केन्द्र आदि में बलवान होगा तो धन के सम्बन्ध में अशुभ फल देगा।

2. यदि बुध बलवान् हो तो मनुष्य श्रमप्रिय होता है । उसकी छोटी बहिनें होती हैं। बुध निर्बल होने से मामा तथा छोटी बहिन के जीवन को हानि पहुंचाता है।

3. बुध यदि द्वितीय भाव तथा धनेश से सम्बन्ध करे तो ऋणी बनाता है।

4. यदि बुध निर्बल, पापयुक्त, पापदृष्ट हो, विशेषतया पंचम भाव में शनि द्वारा युक्त अथवा दृष्ट अथवा शुभ युति न हो, बुध जब पंचम भाव में पड़ेगा तो वह तृतीय से तृतीय होने के कारण तृतीय भाव की हानि करने वाला होगा । पंचम भाव में बुध पड़कर छठे भाव से, जहां इसकी अन्य राशि है, द्वादश पड़ेगा अतः छठे भाव – ऋण दरिद्रता की भी हानि करने वाला होगा और जब बुध पर केवल मात्र पाप दृष्टि होगी तो तृतीय तथा षष्ठ भावों को और अधिक हानि पहुंचेगी।

अब तृतीय तथा षष्ठ दोनों अशुभ भाव हैं अतः निर्धनता, अभाव को बहुत हानि पहुंचेगी: अभाव की हानि का अर्थ है धनाढ्य और संपत्तिशाली होना । अतः बुध विपरीत राजयोग बनाता हुआ अत्यन्त शुभ हो जाएगा ।

5. तृतीय भाव तथा बुध पर यदि दो पाप ग्रहों का युति अथवा दृष्टि द्वारा प्रभाव पड़ रहा हो तो जातक की अचानक मृत्यु हो जाने का योग बनता है: कारण, तृतीय स्थान अष्टम से अष्टम होने के कारण आयु का स्थान हैं और जब बुध आयु स्थान का स्वामी होकर पीड़ित एवं निर्बल हो जाता है तो इसका अर्थ यह होता है कि मनुष्य को आयु सम्बन्धी सद्यः कष्ट मिले, क्योंकि बुध चन्द्रवत् अल्पावस्था का ग्रह होने के कारण शीघ्रतम तथा अचानक अर्थात् समय से पूर्व फल देता है।

6. बुध का निर्बल होना तथा छठे भाव का पापी ग्रहों द्वारा प्रभावित होना अन्तड़ियों तथा पेट में टाइफाइड एपेन्डीसाइटिस, हर्निया आदि रोगों को उत्पन्न करता है।

मेष लग्न में बुध की महादशा का फल

यदि बुध बलवान हो तो अपनी दशा भुक्ति में धन की कमी देता है। उसे मित्रों से कुछ सहायता मिलती है और इस अवधि में उसे बहुत परिश्रम करना पड़ता है।

यदि बुध निर्बल हो तो मनुष्य को बाहु आदि में चोट लगने की संभावना रहती है। भाई-बन्धुओं से वैमनस्य इस समय में रहता है। शत्रुओं से दबकर रहना पड़ता है । अकस्मात् कोई शारीरिक कष्ट ऐसा आ जाता है जिससे जान पर ही बन जाती है ।

गुरु

1. गुरु नवम तथा द्वादश भाव का स्वामी है। अतः गुरु ‘स्थानान्तर’ अर्थात् नवम का अतीव शुभ फल करेगा । केन्द्रादि में गुरु की स्थिति धन, भाग्य राज्य-कृपा आदि देती है। यदि गुरु निर्बल हो तो राज्य से हानि तथा राज-पुरुषों से धन का नाश पाए ।

2. इस व्यक्ति का व्यय धार्मिक कृत्यों पर होता है। बलवान् गुरु न केवल उसकी पत्नी के छोटे भाइयों की संख्या में वृद्धि करता है, बल्कि पुत्र भी देता है।

3. लग्न में मेष का गुरु धार्मिक बनाता है। यदि लग्न से सम्बन्ध करे तो धर्म मन्दिरों तथा धर्म से विशेष सम्बन्ध रखता है।

4. द्वादशेश बृहस्पति पांव का विशेष प्रतिनिधित्व करता है। यदि द्वादश भाव तथा गुरु पर मंगल आदि का प्रभाव हो तो पांव में कष्ट होता है।

5. मेष लग्न वालों के गुरु नवमेश और शनि दशमेश में यदि पारस्परिक दृष्टि आदि सम्बन्ध हो, तो इस सम्बन्ध मात्र से राजयोग की प्राप्ति नहीं होती । महर्षि पाराशर ने अपने होरा शास्त्र में यह स्पष्ट किया हुआ है कि त्रिकोणेश से केन्द्रेश का संबंध तभी योगदायक होता है जबकि केन्द्रेश पापी न हो।

यहाँ शनि एक नैसर्गिक पापी ग्रह होता हुआ केन्द्रेश है, इसलिए अपने नैसर्गिक पापत्व को खो देता है, परन्तु चूँकि पुनः वह एकादशेश भी है, इसलिए वह अन्तिम परिणाम में पापी रहता है और इसी कारण से उसका गुरु से सम्बन्ध योगप्रद सिद्ध नहीं होता । पाराशर ने एकादशेश को पापी ग्रह माना ही है ।

6. कुम्भ राशि का लाभ स्थान में स्थित गुरु अपनी दशा में बुरा फल करता है । यहाँ गुरु इसलिए अशुभ फल दे रहा है कि यह अपनी धनु राशि से तृतीय और मीन से द्वादश अर्थात् दोनों बुरे स्थानों में स्थित है।

मेष लग्न में गुरु की महादशा का फल

यदि गुरु बलवान हो तो गुरु की दशा भुक्ति में खूब भाग्य चमकता है । राज्यं से हर प्रकार की सहायता मिलती है। गुरुजनों की कृपा रहती है। पिता के धन और सुख में वृद्धि होती है ।

यदि गुरु निर्बल हो, पीड़ित हो तो भाग्य में कड़ी हानि होती है। पिता को दुःख मिलता है । जातक को इस अवधि में राज्य से परेशानी रहती है । गुरु पर राहु तथा शनि का प्रभाव हो तो मनुष्य को नौकरी से हाथ धोने पड़ते हैं ।

शुक्र

1. शुक्र द्वितीय तथा सप्तम स्थान का स्वामी हैं, शुभ नहीं। यदि बलवान हो तथा शुभ त्रिकोणाधिपति से सम्बन्ध रखें तो शुभ फल करता है । शुक्र बलवान् हो तो स्त्री पक्ष से तथा व्यापार से धन की अच्छी प्राप्ति होती है। शुक्र यदि बलवान् हो तो मुख सुन्दर होता है।

2. शुक्र यदि निर्बल होकर छठे अथवा आठवें भाव में पड़ा हो तो अपनी दशा अन्तर्दशा में भारी रोग देता है ।

3. शुक्र सप्तमेश तथा सप्तम कारक (स्त्री), दोनों होता है । अतः शुक्र तथा सप्तम भाव पर शुभ अथवा अशुभ प्रभाव विशेष फलदायक तथा निश्चयात्मक होता है । शुक्र यदि निर्बल हो तो स्त्री की मृत्यु शीघ्र हो जाती है, क्योंकि निर्बलता स्त्री के लग्न तथा अष्टम दोनों आयु भावों पर अपना प्रभाव करेगी ।

4. शुक्र यदि पंचम अथवा द्वादश में स्थित हो तो जातक बहुत कामवासना से युक्त तथा स्त्री-लोलुप होता है ।

6. स्त्री की कुण्डली हो और शनि तथा शुक्र बलवान हों पति बहुत भाग्यशाली होता है ।

7. यदि लग्न में सूर्य और शुक्र हों और गुरु की दृष्टि उन पर न हो, तो शुक्र अपनी दशा भुक्ति में शुभ फल देता है । यहॉ शुक्र इसलिए शुभ फलदायक है क्योंकि वह केन्द्राधिपत्य दोष से दूषित होकर पापी बनकर पाप ग्रह सूर्य द्वारा पीड़ित है और इसलिए विपरीत राजयोगकारी बनता हैं तब तो गुरु का शुक्र को न देखना ही अच्छा है, क्योंकि गुरु की दृष्टि से शुक्र शुभता की ओर जावेगा और इसलिए विपरीत राजयोग भंग हो जावेगा

मेष लग्न में शुक्र की महादशा का फल

यदि शुक्र बलवान हो तो इसकी दशा भुक्ति में स्त्री की प्राप्ति होती है, व्यापार-वृद्धि होती है । धन बढ़ता है । स्त्री वर्ग से तथा सुसराल से कुछ लाभ होता है और पुरुषार्थ में वृद्धि होती है।

शुक्र यदि निर्बल और पीड़ित हो तो इसकी दशा भुक्ति में स्त्री बहुत रोगी रहती है । धन का नाश होता है । व्यापार में हानि होती है। राज्य से भी परेशानी रहती है।

शनि

1. शनि दशम तथा एकादश भाव का स्वामी है । पराशर मुनि के मत के अनुसार शनि पाप फल को देने वाला होता है। यद्यपि केन्द्राधिपत्य द्वारा शनि अपना नैसर्गिक पापत्व खो देता है तो भी यह अशुभ गिना जाता है, परन्तु यदि शुक्र आदि शुभ ग्रहों के प्रभाव में हो तो धनदायक होता है ।

2. शनि तथा बुध मिलकर जिस भाव, भावेश को प्रभावित करेंगे उसे रोगी बनायेंगे, क्योंकि बुध षष्ठेश तथा शनि छठे से छठे घर का स्वामी तथा रोग कारक बनता है ।

मेष लग्न में शनि की महादशा का फल

यदि शनि बलवान हो, तो जातक शनि की दशा भुक्ति में धन की अच्छी प्राप्ति करता है । उसे राज्य की ओर से भी सामान्य लाभ रहता है और भूमि आदि की प्राप्ति भी होती है।

यदि शनि निर्बल हो तो टांगों में कष्ट रहता है। आय कम रहती है। बड़े भाई को अथवा बहिन को कष्ट रहता है। राज्य के कारण आर्थिक हानि होती है।

फलित रत्नाकर

  1. ज्योतिष के विशेष सूत्र
  2. मेष लग्न का फलादेश
  3. वृष लग्न का फलादेश
  4. मिथुन लग्न का फलादेश
  5. कर्क लग्न का फलादेश
  6. सिंह लग्न का फलादेश
  7. कन्या लग्न का फलादेश
  8. तुला लग्न का फलादेश
  9. वृश्चिक लग्न का फलादेश
  10. धनु लग्न का फलदेश
  11. मकर लग्न का फलदेश
  12. कुम्भ लग्न का फलादेश
  13. मीन लग्न का फलादेश

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